भंडारे की बदलती परंपरा: सेवा से पेटपूजा तक, गर्मी में कैसे बचें बीमारियों से?

महिमा बाजपेई
महिमा बाजपेई

गर्मी का मौसम और भंडारे का न्यौता – उत्तर भारत में ये दोनों एक-दूसरे के पर्याय बन चुके हैं। पहले भंडारा मतलब – सेवा, दया, ज़रूरतमंदों की भूख मिटाना। अब भंडारा मतलब – “चलो आज खाना मत बनाओ, मोहल्ले वाले भंडारे में चलो!”

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पहले जहां भंडारे की लाइन में गरीब पहले खड़े होते थे, अब वहां AC वाले लोग इंस्टाग्राम की स्टोरी लाइन में सबसे आगे हैं – #BhandaraVibes

जब सेहत देती है चेतावनी:

1. धूप में दम तोड़ता खाना:

सुबह 9 बजे बनी सब्जी अगर दोपहर 2 बजे तक भी धूप में बैठी है, तो उसमें स्वाद से ज्यादा बैक्टीरिया पनपते हैं।

2. तेल की तैरती पूरियां:

एक पूड़ी में जितना तेल होता है, उतना तो बाज़ार की पूरी बोतल में नहीं होता। और जब ये पेट में उतरती है तो गैस, एसिडिटी और डॉक्टर का नंबर साथ लाती है।

3. हैंड वॉश? किस चिड़िया का नाम है वो?:

भंडारे के “सेवा-कर्ता” बिना ग्लव्स, बिना हैंडवॉश – सीधे परोसते हैं। स्वाद के साथ शामिल होता है – बैक्टीरिया का मुफ्त ऑफर।

फिटनेस कोच भी कहें – “थाली से सेवा लो, सेहत मत छोड़ो”

“प्रसाद” समझकर थोड़ा खाएं:

थोड़ी मात्रा में खाना ही असली भक्ति है, ज़्यादा खाना मतलब – आत्मा संतुष्ट, शरीर दुखी।

पानी से दोस्ती ज़रूरी:

शरबत हो या नींबू पानी – स्वच्छता जांचकर ही पिएं, वरना अस्पताल का शरबत मिलेगा।

भूखे ना जाएं:

घर से हल्का नाश्ता करके निकलें ताकि भंडारे की हर चीज़ ज़रूरी ना लगे।

पहले सेवा, फिर सेल्फी:

ज़रूरतमंदों को पहले खिलाएं। खाना बांटने के बाद फोटो खींचें, ताकि सेवा दिखावा न लगे।

परंपरा जिए तभी जब उसमें भाव रहे

भंडारा केवल खाना नहीं है – यह समाज का सामूहिक “सर्विस मोड” है। अगर हम इसे “नो-कुकिंग डे” बना देंगे तो न सेवा बचेगी, न भावना।

इसलिए अगली बार जब आप भंडारे में जाएं, तो एक प्लेट कम खाएं, और एक व्यक्ति ज़्यादा खिलाएं।

भंडारा पेट नहीं, परंपरा की पूजा है। इसे सेवा बनाएं, सिर्फ सेल्फ़ी नहीं।

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